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Class 10th Civics (Social Science) in Hindi Medium Chapter 1 NCERT Solutions (10 वीं नागरिकशास्र नोट्स हिंदी में 2021)

 

लोकत्रांत्रिक राजनीति: अध्याय-1

लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी


This Blog Post is dedicated to 10th Civivcs NCERT Notes in Hindi 10 वीं  नागरिकशास्र नोट्स हिंदी में 2021 लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी नोट्स हिंदी में लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी नोट्स हिंदी में सभी बोर्ड एग्जाम के लिए (विशेषकर बिहार बॉर्ड के लिए )

10th Civics Solutions (Notes) in Hindi for Bihar Board, MP Board, UP Board, Rajasthan, Chhattisgarh, NCERT, CBSE and so on.इस  ब्लॉग में हाई स्कूल नागरिकशास्र 10 वी सोलुशन नोट्स दिए हैंये सोलूशिन नोट्स परीक्षा के दृष्टी से बहुत बहुत ज्यादा महत्वूर्ण है आप इसे पढ़कर परीक्षा में अच्छा स्कोर कर सकते हैं  


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10th Civics Solutions (Notes) in Hindi

*प्रश्नावली

1. हर समाजिक विभिन्नता समाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती है। कैसे?

उत्तर- कोई आवश्यक नहीं है कि सभी समाजिक विभिन्नता समाजिक विभाजन का आधार होता है। संभव हो भिन्न सामुदायों के विचार भिन्न हो सकते हो, परंतु हित समान होगा। उदाहरण के लिए मुंबई में मराठियों के हिंसा का शिकार व्यक्तियों की जातियाँ भिन्न थी, धर्म भिन्न होंगे, लिंग भिन्न हों सकता है। परन्तु उनका क्षेत्र एक ही था। वे सभी एक ही क्षेत्र उत्तर भारतीय थे। उनका हित समान था और वे सभी अपने व्यावसाय और पेशा में संलग्न थे। इस कारण सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं ले पाता है।


2. सामाजिक अंतर कब और कैसे सामाजिक विभाजन का रूप ले लेते हैं?

उत्तर- सामाजिक विभाजन एवं विभिन्नता में बहुत बड़ा अंतर है। सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अंतर दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और बड़ा हो जाते हैं। सवर्णों और दलितों का अंतर एक सामाजिक विभाजन है, क्योंकि दलित संपूर्ण देश में आमतौर पर गरीब, वंजित एवं वेघर हैं और भेदभाव का शिकार हैं जबकि सवर्ण आम तौर पर सम्पन्न एवं सुविधा युक्त है। अर्थात् दलितों को महसूस होने लगता है कि वे दूसरे सामुदाय के हैं। अतः हम कह सकते हैं जब एक तरह का सामाजिक अंतर अन्य अन्तरों से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है और लोगों को यह महसूस होने लगता है कि वे दूसरे सामुदाय के हैं तो इससे सामाजिक विभाजन की स्थिति पैदा होती है।  अमेरिका में श्वेत और अश्वेत का अंतर सामाजिक विभाजन है।


3. सामाजिक विभाजनों की राजनीति के परिणामस्वरूप ही लोकतंत्र में परिवर्तन होता है’। भारतीय के लोकतंत्र के संदर्भ में इसे स्पष्ट करें।

उत्तर- दुनिया के अधिकतर देशों में किसी-न-किसी किस्म का सामाजिक विभाजन है और ऐसे विभाजन राजनीतिक शक्ल भी अख्तियार करती ही है। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के लिए सामाजिक विभाजन की बात करना और विभिन्न समूहों से अलग-अलग वायदे करना बड़ी स्वाभाविक बात है। विभिन्न सामुदायों उचित प्रतिनिधत्व देने का प्रयास करना और विभिन्न समुदायों की उचित माँगों और जरूरतों को पूरा करनेवाली नीतियाँ बनाने भी इसी कड़ी का हिस्सा है। अधिकतर देशों में मतदान के स्वरूप और सामाजिक विभाजनों के बीच एक प्रत्येक्ष संबंध दिखाई देता है। कई पार्टियाँ अपने सामुदाय पर ध्यान देती है और उसी के हित में राजनीति करती है। पर इसकी परिणति देश के विखंडन में नहीं होता है।

लोकतंत्र में सामाजिक विभाजन की राजनीति अभिव्यक्ति एक सामान्य बात है और यह एक स्वस्थ्य राजनीति का लक्षण भी है। राजनीति में विभिन्न तरह के सामाजिक विभाजनों की अभिव्यक्ति ऐसे विभाजनांे का संतुलन पैदा करना का भी काम करती है। परिणामतः कोई सामाजिक विभाजन एक हद से ज्यादा उग्र नहीं हो पाता और यह प्रवृति लोकतंत्र को मजबूत करने में सहायक भी होता है। लोक शांतिपूर्वक संवैधानिक तरीके से अपनी माँगों को उठाते हैं और चुनाव के माध्यम से उनके लिए दबाव बनाते हैं, उनका समाधान पाने का प्रयास करते हैं।


4. सत्तर के दशक से आधुनिक दशक के बीच भारतीय लोकतंत्र का सफर ;सामाजिक न्याय के संदर्भ मंेद्ध का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर- सत्तर दशक में महाराष्ट्र के कवि नामदेव द्वारा लिखित कविता कमोवेश  संपूर्ण भारत के सामाजिक संरचना की ओर ध्यान आकृष्ट करता है तथा यह बताता है कि दलित जातियों के अस्तित्व की पहचान और पहुँच राजनीति से कोसो दूर था। 
सत्तर से नब्बे तक के दशक के बीच सर्वण और पिछड़ें जातियों में सत्ता कब्जा के लिए संर्घष चला। नब्बे दशक के उपरांत पिछड़े जातियों वर्चस्व तथा दलितों की जागृति की अवधारणाएँ राजनीति गलियारों में उपस्थिति दर्ज कराती रही और नीतियों को प्रभावित करती रही। भारतीय राजनीति के इस महामंथन में पिछड़े और दलितों का संघर्ष प्रभावी रहा। आधुनिक दशक के वर्षों में राजनीति का पलड़ा और दलितों और महादलितों ; बिहार के संदर्भ मेंद्ध के पक्ष में झुकता दिखाई दे रहा है। सरकार के नीतियों के सभी परिदृश्यों में दलित न्याय की पहचान सबके केन्द्र बिन्दु बन गया है। 


5. सामाजिक विभाजन की राजनीति का परिणाम किन-किन चीजों पर निर्भर करता है?
उत्तर- सामाजिक विभाजन की राजनीति का परिणाम तीन तत्वों पर निर्भर करता है-
(1) प्रथम लोग अपनी पहचान स्व-अस्तित्व तक ही सीमित रखना चाहते हैं क्योंकि प्रत्येक मनुष्य में राष्ट्रीय चेतना के आलवा उपराष्ट्रीय या स्थनीय चेतना भी होते हैं। कोई एक चेतना बाकी चेतनाओं की कीमत पर उग्र होने लगती है तो समाज में असंतुलन पैदा हो जाता है। उदाहरणार्थः जब तक उत्तरी आयरलैंड के लोग खुद को सिर्फ प्रोटेस्टेंट या कैथोलिक के तौर पर देखते रहेंगे तब तक उनका संघर्ष नहीं थम पाएगा। फिर जब तक बंगाल बंगालियों का, तमिलनाडु तमिलों का, माहाराष्ट्र मारठियों का, आसाम असमियों का, गुजरात गुजरातियों का, की भावना का दमन नहीं होगा तबतक भारत की अखंडता, एकता तथा सामंजस्य खतरा में रहेगा। अतएव उचित यही है कि पहचान के लिए सभी चेतनाएँ अपने-अपने मर्यादा में रहे और एक-दूसरे के सीमा में दखल न दें। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अगर लोग अपने बहु स्तरीय पहचान को राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा मानते हैं तो कोई समास्या नहीं हो सकती। उदाहरण स्वरूप, बेंल्जियम के अधिकतर लोग खुद को बेल्जिायाई ही मानते हैं, भले ही वे डच और जर्मन बोलते हैं। हमारे देश में भी ज्यादातर लोग पहचान को लेकर ऐसा ही नजरीया रखते हैं। भारत विभिन्नताओं का देश है, फिर भी सभी नागरिक सर्वप्रथम अपने को भारतीय मानते हैं तभी तो हमारा देश अखंडता और एकता का प्रतीक है।
(2) दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है कि किसी सामुदाय या क्षेत्र विशेष की माँगों को राजनीति दल कैसे उठा रहे हैं। संविधान के दायरें में आनेवाली और दुसरे सामुदाय को नुकसान न पहुँचाने वाली माँगों को मान लेना आसान है। सŸार के दशक के पूर्व का राजनीतिस्वरूप तथा अस्सी एवं नब्बे के दशक में राजनीति परिदृश्य में बदलाव हुआ है और भारतीय समाज में सामंजस्य अभी तक बरकरार है। इसके विपरित युगोस्लाविया में विभिन्न सामुदाय के नेताओं ने अपने जातियों समुहों की तरफ से ऐसी माँगें रख दी जिन्हें एक देश की सीमा के भीतर पूरा करना असंभव था। फलतः युगोस्लाविया टुटा गया और टुकड़ा में बँट गया। 
(3) सामाजिक विभाजन की राजनीति का परिणाम सरकार के रूप पर भी निर्भर करता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि सरकार इन माँगों पर क्या प्रतिक्रियाँ व्यक्त करते हैं। अगर भारत में पिछड़े एवं दलितों प्रति न्याय की माँग को सरकार शुरू से ही खारीज करती रहती तो आज भारत बिखराव के कगार पर होता, लेकिन सरकार इनके सामाजिक न्याय को उचित मानते हुए सŸाा में साझेदारी बनाया और इसकी देश में मुख्य धारा में जोड़ने का ईमानदारी से प्रयास किया। फलतः छोटे-मोटे संघर्ष के बावजुद भी भारतीया समाज में समरसता और सामंजस्य स्थापित है। पुनः बेल्जियम में भी सभी सामुदायों के हितों को सामुदायिक सरकार में उचित प्रतिनिधित्व दिया गया। परन्तु श्रीलंका में राष्ट्रीय एकता के नाम पर तमिलों के न्यायपूर्ण माँगों को दबाया जा रहा है। ताकत के दाम पर एकता बनाए रखने की कोशिश विभाजन की ओर ले जाते हैं।

6. सामाजिक विभाजनांे को संभालने के संदर्भ में कौन-सा बयान लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लागु नहीं होता?
उत्तर- (घ) लोकतंत्र सामाजिक विभाजनों के आधार पर समाज के विखंडन की ओर ले जाता है।

7. निम्नलिखित तीन बयानों पर विचार करें- 
(क) जहाँ सामजिक अंतर एक-दूसरे से टकराते हैं, वहाँ सामाजिक विभाजन होता है।
(ख) यह संभव है एक व्यक्ति की कोई पहचान हो। 
(ग) सिर्फ भारत जैसे बड़े देशों में ही सामाजिक विभाजन होते हैं। 
इन बयानों में से कौन-कौन से बयान सही है-
उत्तर- (ख)  क और ख 

8. निम्नलिखित व्यक्तिाओं में कौन लोकतंत्र में रंगभेद के विरोधी नहीं थे।
उत्तर-  महात्मा गाँधी

9. निम्नलिखित का मिलान करें- 
(क) पाकिस्तान       (अ) धर्मनिरपेक्ष
(ख) हिन्दुस्तान       (ब) ईस्लाम
(ग) इंगलैंड            (स) प्रोटेस्टेंट
उत्तर- (क) पाकिस्तान       (ब)  ईस्लाम
          (ख) हिन्दुस्तान        (अ) धर्मनिरपेक्ष
          (ग) इंगलैंड             (स) प्रोटेस्टेंट


10. भावी समाज में लोकतंत्र का जिम्मेवारी और उद्देश्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर- वर्तमान में लोकतंत्र शासन व्यवस्था संसार के अधिकतर देश अपना रहे हैं, क्योंकि लोकतंत्र में लोगोें के कल्याण की बातों को प्रमुखता दी जाती है, आज लोकतंत्र अपनी जड़े जमा चुका है और यह धीरे-धीरे परिपकवता की ओर अग्रसर है।
लोकतंत्र शासन व्यवस्था एक ऐसी शासन-व्यवस्था जिसके अंतर्गत लोग अपने प्रतिनिधियों को चुनकर संसद या विधानसभा में भेजते हैं। यह लोगों के कल्याण, समाजिक समानता, आर्थिक समानता तथा धाार्मिक समानता इत्यादि के पक्षधर हैं। इसी शासनतंत्र के अंतर्गत लोक-कल्याणकारी राज्य बनाया जा सकता है। इस शासन व्यवस्था मंे जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और वे प्रतिनिधि जनता के भलाई के लिए कार्य करते हैं।
वर्तमान समय में लोकतंत्र का क्रमिक विकास इस बात का सुचक है कि यह शासन व्यवस्था औरों से अच्छी है लोकतंत्र एक ऐसा आधार प्रस्तुत करती है जिसमें लोगों के कल्याण के साथ-साथ समाज का विकास भी संभव है। यह भावी समय के लिए एक ऐसा आधार प्रस्तुत करती है जिसमें लोगों के कल्याण की भावना छुपी है। लोकतंत्र का दीर्घकालीन उद्देश्य है एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना जिसमें आम लोगों का विकास, आर्थिक समानता, धार्मिक समानता एवं सामाजिक समानता निहित होती है। इस प्रकार लोकतंत्र भावी सामज के लिए जिम्मेवारीपूर्ण कार्य करता है। 

11. भारत में किस तरह जातिगत असमानताएँ जारी है? स्पष्ट करें।
उत्तर- दुनिया भर के सभी समाज में सामाजिक असमानताएँ और श्रम विभाजन पर आधारित समुदाय विद्यमान हैं। भारत इससे अछुता नहीं है। भारत की तरह दूसरे देशों में भी पेशा का आधार वंशानुगत है। पेशा एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में स्वमेव चला आता है। पेशे पर आधारित सामुदायिक व्यवस्था ही जाति कहलाती है। यह व्यवस्था जब स्थायी हो जाता है तो श्रम विभाजन का आतिवादी रूप कहलाता है। जिसे हम जाति के नाम से पुकारते हैं। यह एक खास अर्थ में समाज में दूसरे सामुदाय से भिन्न हो जाता है। इस प्रकार से वंशानुगत पेशा पर आधारित सामुदाय, जिसे हम जाति कहते हैं, की स्वीकृति रीति-रिवाज से भी हो जाती है। इनकी पहचान एक अलग सामुदाय में ही होता है तथा खान-पान भी समान सामुदाय में ही होता है। अन्य सामुदाय में इनकी संतानों की शादी न तो हो सकते हैं और न ही करने की कोशिश करते हैं। महत्वपूर्ण पारिवारिक आयोजन और सामुदायिक आयोजन में अपने सामुदाय के साथ एक पांत में बैठकर भोजन करते हैं। कहीं-कहीं तो देखा गया है कि अगर इस एक सामुदाय का बेटा या बेटी दूसारे सामुदाय के बेटे या बेटी से शादी कर लेते हैं तो उस पांत को काट दिया जाता हैै। अपने सामुदाय से हटकर दूसरे सामुदाय में वैवाहिक संबंध बनाने वाले परिवार को सामुदाय से निष्कासित भी कर दिया जाता है।

12. क्यों सिर्फ जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजे तय नहीं हो सकते? इसके दो कारण बताऐं।
उत्तर- यद्यपि प्रायः राजनीति में जातिगत भावना पर जोर दिया जाता है और यह धारणा बन जाती है कि चुनाव और कुछ नहीं बल्कि जातियों का खेल है। परन्तु ऐसी बात नहीं है कि सिर्फ जाति के आधार भारत में चुनावी नतीजे तय हो सकते हैं। राजनीति में अन्य अवधारणाएँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं है जैसे-
(1) किसी भी निर्वाचन क्षेत्र का गठन इस प्रकार नहीं किया गया है कि उसमें मात्र एक जाति के मतदाता रहे। ऐसा हो सकता है कि एक जाति के मतदाता की संख्या अधिक हो, परन्तु दूसरे जाति के मतदाता भी निर्णायक भुमिका निभाते हैं। अतएव हर पार्टी एक या एक से अधिक जाति के लोगों का भरोसा हासिल करना चाहता है। 
(2) अगर जातिय भावना स्थायी और अटुट होता तो जातीय गोलबंद पर सत्ता में आनेवाली पार्टी की हार नहीं होती है। यह माना जा सकता है कि क्षेत्रिय पार्टीयाँ जातिय गुटों से संबंध बनाकर सत्ता में आ जाए, परन्तु अखिल भारतीय चेहरा पाने के लिए जाति विहीन, साम्प्रदायिकता के परे विचार रखना आवश्यक होगा।


13. विभिन्न तरह के संप्रदायिक राजनीति का ब्योरा दें और सबके साथ एक-एक उदाहरण दें।
उत्तर- जब हम कहना शुरू करते हैं कि धर्म ही सामुदाय का निर्माण करती है तो सांप्रदायिकता राजनीति जन्म लेने लगती है और इस अवधारण पर आधारित सोच ही सांप्रदायिकता है। हम प्रत्येक दिन सांप्रदायिकता की अभिव्यक्ति देखते हैं, महसूस करते हैं तथा धार्मिक पूर्वाग्रह, परंपरागत धार्मिक, अवधारणाएँ एवं एक धर्म को दूसरे धर्म से मानने की मान्यताएँ। हालाँकि ये सारी चीजें बिल्कुल साधारण सी बात है। परन्तु यह सोच हमारे अन्दर बैठा है अतएव यह भी सांप्रदायकिता का एक रूप है-
(1) सांप्रदायिकता की सोच प्रायः अपने धार्मिक सामुदाय का प्रमुख राजनीति में बरकरार रखना चाहता है। जो लोग बहुसंख्यक सामुदाय के होते हैं उनकी यह कोशिश बहुसंख्यकवाद का रूप ले लेती है। उदाहरणतः श्रीलंका में सिंहलियों का बहुसंख्यकवाद। यहाँ लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार ने भी सिंहली सामुदाय की प्रभुता कायम करने के लिए अपने बहुसंख्यक परस्ती के तहत कई कदम उठाय है। जैसे- 1956 में सिंहली को एकमात्र राज्यसभा के रूप में घोषित करना, विश्वविद्यायल और सरकारी नौकरियों में सिंहलियों को प्राथमिकता देना आदि।
(2) सांप्रदाययिकता के आधार पर राजनीति गोलबंदी सांप्रदायिकता का दूसरा रूप है। इस हेतु पवित्र प्रतीकों, धर्म गुरुओं और भावनात्मक अपील आदि का सहारा लिया जाता है। निर्वाचन के वक्त हम ऐसा देखते हैं। किसी खास धर्म के अनुवायियों से किसी पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान कराने की अपील कराई जाती है।
(3) और अंत में सांप्रदायिकता का भयावह रूप तब देखते हैं, जब सांप्रदाय के आधार पर हिंसा, दंगा और नरसंहार होता है। विभाजन के समय हमने इस त्रासदी को झेला है। आजादी के बाद भी कई जगह पर बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई है। 


14. जीवन के विभिन्न पहलुओं का जिक्र करें जिसमें भारत में स्त्रियों के साथ भेदभाव है या वे कमजोर स्थिति में हैं। 
उत्तर- भारतीय समाज अभी भी पितृ-प्रधान है। औरतों के साथ कई तरह से भेदभाव होते है अथवा कमजोर स्थिति में हैं। इस बात का संकेत निम्न तथ्यों से मिलता है- 
(1) महिलाओं में साक्षारता का दर अब भी मात्र 54 फीसदी है जबकि पुरुष में 76 फिसदी है। यद्यपि स्कूली शिक्षा में कई जगह लड़कियाँ अब्बल रही है फिर उच्च शिक्षा प्राप्त करनेवाली लड़कियों का प्रतिशत बहुत ही कम है। इस संदर्भ के लिए माता-पिता के नजरिये में भी फर्क है। माता पिता की मानसिकता बेटों पर अधिक खर्च करने की होती है। यही कारण है कि उच्च शिक्षा में लड़कियों की संख्या सीमित है।
(2) शिक्षा में लड़कियों के पिछड़ेपन के कारण अब भी उँची तनख्वाह वाले और उँचे पदों पर पहुंचने वाली महिलाओं कि संख्या बहुत ही कम है।
(3) यद्यपि एक सर्वेक्षण के अनुसार एक औरत औसतन रोजना साढ़े सात घंटे से ज्यादा काम करती है, जबकि एक मर्द औसतन रोज छः घंटे ही काम करता है। फिर भी पुरुषों द्वारा किया गया काम ही ज्यादा दिखाई पड़ता है, क्योंकि उससे आमदनी होती है। हालाँकि औरतें भी ढेर सारे ऐसे काम करती है जिनके प्रत्येक्ष रूप से आमदनी होती है लेकिन इनका ज्यादातार काम घर के चहार दीवारी के अंदर होती है। इसके लिए उन्हें पैसा नहीं मिलते इसलिए औरतों का काम दिखाई नहीं देता।
(4) लैंगिक पूर्वाग्रह का काला पक्ष बड़ा दुखदायी है जब भारत के अनेक हिस्सों में माँ-बाप को सिर्फ लड़के की चाह होती है। लड़की को जन्म लेने से पहले हत्या कर देनी की प्रवृति इसी मानसिकता का परिणाम है।


15. भारत के विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति क्या है?
उत्तर- महिला आंदोलन की माँगों में सत्ता में भागीदारी की माँग सर्वोपरी रही। औरतों ने सोचना शुरू कर दिया कि जबतक औरतों का सत्ता पर नियंत्रण नहीं होगा तबतक इस समास्या का निपटारा नहीं होगा। फलतः राजनीति गलियारों में इस बात पर बहस छिड़ गयी कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने का उत्तम तरीका यह होगा कि चुने हूए प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी बढ़ायी जाए। यद्यपि भारत के लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की संख्या 59 हो गयी है। फिर भी इसका प्रतिशत 11 प्रतिशत के नीचेे ही है। पिछले लोकसभा चुनाव में 40 प्रतिशत महिलाओं की परिवारिक पृष्ठभूमि अपराधिक था। परन्तु इस बार 15 वीं लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने अपराधिक को नकार दिया। 90 प्रतिशत महिला सांसद स्नातक है। आज भी आम परिवारिक महिलाओं को सांसद बनने का अवसर क्षीण है। महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ना लोकतंत्र के लिए शुभ है। 

16. किन्हीं दो प्रावधानों का जिक्र करें जो भारत को धर्मनिरपेक्ष देश बनाता है?
उत्तर- हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना हेतु अनेक प्रावधान किये गये हैं उनमें से दो निम्न हैं-
(1) संविधान में हर नागरिक को यह स्वतंत्रता दी गई है कि अपने विश्वास से वह किसी धर्म को अंगीकार कर सकता है। इस आधार उसे किसी अवसर से वंचित नहीं किया जा सकता है। प्रत्येक धर्मावलंबियों को अपने धर्म का पालन करनेवाले अथवा शांतिपूर्ण ढ़ग से प्रचार करने के अधिकार है। इस हेतु वह शिक्षण संस्थओं को स्थापित और संचालित कर सकता है। 
(2) हमारे संविधान के अनुसार धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव असंवैधानिक घोषित है।


17. जब हम लैंगिक विभाजन की बात करते है तो हमारा आभिप्राय होता है-
उत्तर- समाज द्वारा स्त्रि और पुरुष को दी गई असमान भुमिकाएँ

18. भारत में यहाँ औरतों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है- 
उत्तर- पंचायती राज्य संस्थाएँ

19. संप्रदायिक राजनीति के अर्थ संबंधि निम्न कथनों पर गौर करें। सांप्रदायिक राजनीति किस पर आधारित है-
उत्तर- (अ) एक धर्म दूसरे से श्रेष्ठ है।
          (स) एक धर्म का आनुवायी एक सामुदाय बनाते हैं।

20. भारतीय संविधान के बारे में इनमें से कौन-सा कथन सही है-
उत्तर- (क) यह धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही करता है।
          (ग)सभी लोगों को कोई धर्म मानने की आजादी देता है।
          (घ) किसी धार्मिक सामुदाय में सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देता है।

21..............पर आधारित विभाजन सिर्फ भारत में है।
उत्तर-  जाति


22.  सूची I और सुची II का मेल कराएँः 
   सूची I                                                                                 सूची II
(1)अधिकारों और अवसरों के मामलों में स्त्री                        (क) सांप्रदायिक
और पुरुष के बराबरी माननेवाला व्यक्ति
(2) धर्म को सामुदाय का मुख्य आधार माननेवाला व्यक्ति      (ख)नारीवादी
(3) जाति को सामुदाय का मुख्य आधार माननेवाला व्यक्ति    (ग) धर्मनिरपेक्ष
(4) व्यक्तिओं के बीच धार्मिक अवस्था पर आधार पर            (घ)जातिवादी
भेदभाव न करनेवाला व्यक्ति 
उत्तर-   सूची I                                                                      सूची II
(1) अधिकारों और अवसरों के मामलों में स्त्री                      (ख) नारीवादी
और पुरुष के बराबरी माननेवाला व्यक्ति 
(2) धर्म को सामुदाय का मुख्य आधार माननेवाला व्यक्ति      (क) सांप्रदायिक
(3) जाति को सामुदाय का मुख्य आधार माननेवाला व्यक्ति    (घ) जातिवादी
(4) व्यक्तिओं के बीच धार्मिक अवस्था पर आधार पर            (ग) धर्मनिरपेक्ष
भेदभाव न करनेवाला व्यक्ति 



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